आप सभी का हार्दिक स्वागत एवं अभिनंदन है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की उन्नति मूल रूप से जिन चार स्तंभों पर निर्भर होती हैं, वे हैं- आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक। महाराजा अग्रसेन का जीवन-दर्शन इन्ही चारों स्तंभों को दृढ़ करके उन्नत जगत के नवनिर्माण का आधार बनाता है, वहीं 'सर्वलोक हितं धर्मम्' का मार्ग प्रशस्त करता है।
हमारे पितामह अग्रसेन महाराज ऐसे कर्मयोगी लोकनायक हैं जिन्होंने बाल्यावस्था से ही, संघर्षों और कठिनाइयों से लोहा लेते हुए अपने आदर्श जीवन कर्म से, सम्पूर्ण मानव समाज और सभ्यता को महानता का जीवन-पथ दर्शाया। स्वयं की आत्मशक्ति को जागृत कर, विश्व उपदेष्टा का महत्वपूर्ण कार्य किया।
चैतन्य आनंद की अनन्य विशेषताओं से परिपूर्ण, परम पवित्र, परिशुद्ध, मानव की जन कल्याणकारी प्रकाश से युक्त महामानव अग्रसेन महाराज के महात्म्य से अनभिज्ञ होने के कारण उन्हें एक समाज विशेष का कुलपुरुष घोषित कर इतिहास ने हाशिए पर डाल दिया।
अग्रसेन महाराज गौरवशाली सूर्यवंश में जन्म लिए थे। महाभारत के युद्द के दौरान वे महज 15 साल के थे। युद्ध के लिए समस्त मित्र राजाओं को दूतों द्वारा निमंत्रण प्रेषित किये गए थे। पांडव दूत ने वृहत्सेन (वृहत्सेन जी महाराजा अग्रसेन के दादा थें) की महाराज पांडु से मित्रता को याद कराते हुए महाराज वल्लभसेन (महाराजा अग्रसेन के पिता) से अपनी सेना सहित महायुद्ध में शामिल होने का निमंत्रण दिया था।
महाभारत के इस महा संग्राम में महाराज वल्लभसेन अपने किशोर पुत्र अग्रसेन तथा सेना के संग पांडव पक्ष में लड़ते हुए युद्ध के दसवें दिन पितामह भीष्म के बाणों से वीरगति को प्राप्त हो गए थे। युद्ध के बाद धर्मराज युधिष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण के अगुवाई में जो राजा एवं राजपुत्र शेष रहे थे, उन्हें विदा किया। महाराज श्री ने जन कल्याणार्थ किए गए यज्ञ में हिंसा का तिरस्कार कर पशु बलि देने से इनकार कर दिया। इस तरह वें क्षत्रिय वर्ण की आहुति देकर शांति प्रिय वैश्य वर्ण को सदा के लिए धारण कर लिया।