अग्रवंश के 18 गोत्र
वैश्यों की कुलदेवी माता महालक्ष्मी जी की कृपा और आशीर्वाद से अग्रकुल प्रणेता महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्र हुए। राजकुमार विभु महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों में सबसे बड़े थे। गर्ग ऋषि ने अग्रसेन को 18 पुत्र के संग 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया था। ऐसा कहा जाता है कि यज्ञों में विराजमान 18 ऋषियों के नाम पर ही सम्पूर्ण अग्रवंश की स्थापना हुई । उस समय यज्ञों में पशुबलि देने की प्रथा थी। पहले यज्ञ के पुरोहित खुद महर्षि गर्ग बने, ज्येष्ठ पुत्र विभु को दीक्षित कर गर्ग गोत्र से उन्हें मंत्रित किया। इसी तरह द्वितीय यज्ञ ऋषि गोभिल ने संपन्न कराया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र से मंत्रित किया। गौतम ॠषि ने तीसरा यज्ञ करकर गोइन नामक गोत्र धारण करवाया, चौथे में महर्षि वत्स ने बंसल अथवा बांसल गोत्र, पाँचवे में महर्षि कौशिक ने कंसल गोत्र, छठे यज्ञ को महर्षि शांडिल्य ने सिंघल गोत्र, सातवे में महर्षि मंगल ने मंगल गोत्र, आठवें में महर्षि जैमिन ने जिंदल गोत्र, नौवे में महर्षि तांड्य ने तिंगल गोत्र, दसवें में महर्षि और्व ने ऐरन गोत्र, ग्यारहवें में महर्षि धौम्य ने धारण गोत्र, बारहवें में महर्षि मुदगल ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में महर्षि वशिष्ठ ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में महर्षि मैत्रेय ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें महर्षि कश्यप ने कुच्छल अथवा कंछल गोत्र दीक्षित कर धारण करवाया। 17वां यज्ञ पूरा हो गया था। 18 वें यज्ञ में क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवित पशु की बलि दी जा रही थी, उसे देख कर परम दयालु अग्रसेन महाराज को घृणा उत्पन्न हो गई। उनका ह्रदय पसीज गया और वो भावविभोर हो उठे। उन्होंने तुरंत यज्ञ को मध्य में ही अवोधित कर दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य,मेरे क्षेत्र, मेरे वंश का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशु बलि नहीं देगाा। न ही पशु की हत्या होगी और ना ही मांसाहार भोजन कोई खायेगा और राज्य का प्रत्येक व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। जिसके बाद कहा जाता है कि महाराजा ने क्षत्रिय धर्म को त्याग कर शांतिप्रिय वैश्य धर्मं लिया। महर्षि नगेन्द्र ने 18वें यज्ञ में नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।
पूज्य महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर आज अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। वें निम्नलिखित हैं,
गोत्रों के नाम -
ऐरन | बंसल | बिंदल | भंदल | धारण | गर्ग | गोयल | गोयन | जिंदल |
कंसल | कुच्छल | मधुकुल | मंगल | मित्तल | नागल | सिंघल | तायल | तिंगल |
अग्रहरियों का गोत्र
महाराजा अग्रसेन की नगरी अग्रोहा पर मुसलमान अक्रान्ताओ के आक्रमण एवं मुगलों के अत्याचार से बचने के लिए जो 96 अग्रवंशी परिवार ने अग्रोहा त्याग कर इधर-उधर बस गए थेैं। उन्होंने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपना मूल गोत्र भी छिपा लिया और सभी ने एक ही गोत्र "कश्यप" बतलाना प्रारंभ कर दिया। मूल गोत्र छिपाने के कारण ही ये "गुप्त" भी कहलाने लगे, जो कालांतर में ब्रिटिश शासनकाल मे 'गुप्ता' हो गया। गुप्त जातीय इतिहास के पृष्ठ क्रमांक 187 में भी 18 वें क्रम मे छियानवे का गोत्र कश्यप दिया हुआ है। अखिल भारतीय अग्रहरि वैश्य समाज द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओ के अनुसार अग्रहरि समुदाय का मूल गोत्र "कुच्छल" है, जो कि महाराज अग्रसेन द्वारा बनाए गए अठारह गोत्रो मे से एक है। "कुच्छल" गोत्र के ऋषि कश्यप है। अग्रहरि अग्रवंश की एक शाखा हैै।
कश्यप गोत्र एवं कश्यप गोत्र
महर्षि कश्यप, प्राचीन वैदिक काल के महान ॠषियों में से एक थे। हिंदु धर्म ग्रंथों में महर्षि कश्यप के सम्बन्ध में विस्तार में वर्णन मिलता हैे। महर्षि कश्यप की गणना सप्तर्षि गणों में होती थी। वें अपनी महानता, विद्वानता व धर्मपरायणता के कारण ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ माने गएे। ऋषि कश्यप धार्मिक तथा रहस्यात्मक चरित्र वाले महान ऋषि थे। ऐसा माना जाता है कि इनके वंशज ही सृष्टि के प्रसार में बहुत सहायक हुए।
महर्षि कश्यप |